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कविता

पुरुवाई-झोंके

शीला पांडे


कैद हुए
पुरुवाई-झोंके
गंध नही स्वच्छंद।

मधुमासों पर
पड़ा कुहासा
तपती धरती तन-मन।
नदिया, ताल
पोखरे सूखे,
सागर से भी अन-बन।
कछुवा, मीन
पियासे मरते,
फूलों में मकरंद।

वट, पीपल
पाकड़ गायब हैं
अमिया को भी तरसे।
घेर-घार
लल्ला नित पूछे,
टुक-टुक ताके हरसे।
तरु-बबूर,
संग ढूँढ़ रहा
क्यों तू सुरभित आनंद।

सबकी करता था
तरु सेवा,
देता फल और छाँव।
गमले बीच
उसे ला रोपा
उलट गये हैं दाँव
जलूँ धूप में, कैसे सींचू
पा लूँ
मधुमय छंद ?
 


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